सफा व मरवाह
. सफ़ा व मरवाह मक्का में बैतुल्लाह के बिल्कुल करीब दो पहाड़ियां हैं, जब इब्राहिम (अलैहि सलाम) अल्लाह के हुक्म से हज़रत हाजरा (ऱ.अ) और इस्माईल (अलैहि सलाम) को मक्का में छोड़ कर चले गये तो खाना पानी खत्म हो गया। तो हज़रत हाजरा (ऱ.अ) पानी की तलाश में इन्हीं दो पहाड़ियों के दर्मियान दौड़ी थीं।
. फ़िर जब कुछ जमाने के बाद बुत पस्स्ती का दौर शुरू हुआ तो सफ़ा मरवाह पर भी दो बुत रख दिए गए थे, इस्लाम से पहले लोग सई के बाद इन का बोसा लेते और ताज़ीम के तौर पर यह समझते के तवाफ़ व सई इन्हीं के नाम पर किया जाता है, इस्लाम में जब सफ़ा व मरवाह के दर्मियान सई करने का हुक्म दिया गया, लोगों को शुबा पैदा हुआ के इस सई से कहीं बुत परस्तों की मुशाबहत न हो जाए, तो अल्लाह तआला ने फर्माया के –
“हम ने हज़रत हाजरा (ऱ.अ) की इस अदा को कयामत तक हज व उम्रह करने वालों के लिए बाइसे अज्र व सवाब और इस्लामी यादगार बना दिया है। यह कोई गुनाह की बात नहीं, बल्के तुम्हारे लिए इबादत व तक़र्रूबे इलाही का ज़रिया है।”
. चुनान्चे हज व उम्रह करने वालों के लिए सफ़ा व मरवाह के दर्मियान सई करना वाजिब है और बिला किसी शरई उज्र के सई छोड़ देने पर दम वाजिब है।
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