Monday, December 16, 2024
Change yourself Only for Allah
That's a profound reminder rooted in faith and devotion. It emphasizes the idea that personal growth and change should be motivated by a desire to align with the will of Allah (God) rather than seeking validation or approval from people. This perspective encourages individuals to stay true to their values, beliefs, and spiritual journey, focusing on pleasing Allah above all else. In Islam, this aligns with the concept of sincerity (ikhlas) — that actions should be done for the sake of Allah alone. It speaks to the importance of spiritual integrity and staying firm in one's faith amidst societal pressures.
Islamic dress is better than Western dress
The idea that Islamic dress is "better" than Western dress depends on the perspective, cultural values, and personal beliefs of the individual or community. In Islam, modesty is highly emphasized, and Islamic dress codes, such as the hijab for women and modest clothing for both men and women, reflect these values. For many Muslims, this form of dress symbolizes modesty, identity, and adherence to religious principles.
Western dress, on the other hand, is often seen as more flexible and diverse, allowing for a wide range of styles and expressions. Some view it as more aligned with individual freedom and self-expression.
Both forms of dress carry cultural, social, and sometimes religious significance, and each has its own context in which it is preferred or valued. Ultimately, the "better" choice varies according to individual beliefs, values, and the environment in which one lives.
औरत को पसली से पैदा किया गया है
नबी करीम (ﷺ) ने फ़रमाया : -
औरत को पसली से पैदा किया गया है वह तुम्हारे लिए किसी एक तरीके पर हरगिज़ सीधी नहीं रह सकती, अगर तुम उस से फायदा उठाना चाहो तो उसी तरह फायदा उठा लोगे की उसमें कज़ी (टेढापन) रहेगा और अगर तुम उसे सीधा करने चलोगे तो उसे तोड़ डालोगे, और उसे तोड़ना उसकी तलाक है।
[SAHIH MUSLIM #3643]
यानि उसके साथ ज़बान दराज़ी करोगे तो अपना घर तोड़ बैठोगे, इसलिए तुम्हारे लिया बेहतर है कि बात को दरगुज़र करो ताकि घर बना रहे।
Friday, November 22, 2024
बात करने के आदाब
01. फ़िज़ूल और ज़्यादा बातें करने से बचना :
कुरआन मजीद का इरशाद, 'लोगों की ख़ुफ़िया सरगोशियों में अक्सर व बेशतर कोई भलाई नहीं होती। हाँ अगर कोई पोशीदा तौर पर सदक़ा व खैरात करे या किसी नेक काम की तल्कीन करे या लोगों में सुलह कराने के लिये (मश्वरा वगैरह कर ले)।'
(सूरह निसा :114)
ऐ मुस्लिम बहन ! आपको इल्म होना चाहिये कि आपकी हर बात को लिखने वाले और उसे नोट करने वाले हर वक़्त मौजूद हैं, अल्लाह तआला का फरमान है : 'एक दायें तरफ और एक बायें तरफ बैठा हुआ है। तुम जो बात भी मुँह से निकालते हो, उस पर निगरान मौजूद है।'
(सूरह काफ़:17-18)
इसलिये बेहतर है कि आप जो बात करें बड़ी मुख़्तसर (छोटी), बा-मानी (सार्थक और बामकसद हो और जो बात मुंह से निकालें सोच-समझ कर निकाले!
02. कुरआन करीम की तिलावत करना :
कोशिश ये हो कि हर रोज़ कुरआन की तिलावत की जाये, कुरआन पढ़ना आपका रोज़ाना का मामूल बन जाना चाहिये। और ये भी कोशिश करें कि जितना हो सके उतना ज़बानी हिफ़्ज़ किया जाये ताकि क़यामत के रोज़ अत्रे अज़ीम, आला दर्जात और बेहतरीन मक़ाम से नवाजा जाए।
हजरत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि.) बयान करते हैं कि नबी अकरम (ﷺ) का इरशादे गिरामी है, “साहिबे कुरआन को कहा जायेगा कि (ठहर ठहर कर ) तरतील से पढ़ता जा और चढ़ता जा और इसी तरह कुरआन की तिलावत करता जा जैसे दुनिया में (ठहर-ठहर कर ) किया करता था, तेरी मंज़िल वहाँ होगी जहाँ तेरी आख़री आयत की तिलावत होगी।"
(अबू दाऊद: 1464)
03. हर सुनी हुई बात को बयान न करना :
ये अच्छी बात नहीं कि आप जो कुछ सुनें उसे आगे बयान करें, हो सकता है उसमें कुछ झूठ की मिलावट हो ।
हज़रत अबू हुरैरह (रजि.) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फर्माया "आदमी के लिये यही झूठ काफ़ी है कि हर सुनी बात को बयान करे। "
(सहीहूल जामे सगीर : 4482)
04. बड़ाई बयान करने से बचना :
फक्रिया कलिमात (गीली बातें) कहना और बड़ाई बयान करना और जो चीज़ आपके पास नहीं उसको अपनी मिल्कियत ज़ाहिर करना। अपनी ज़ात को ऊँचा दिखाने और लोगों की नज़रों में बड़ा बनने के लिये कोई अल्फ़ाज़ इस्तेमाल न करें।
उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा सिद्दीका (रजि.) बयान करती हैं कि एक औरत ने कहा, "ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! किसी को बताऊँ कि ये चीज़ मेरे ख़ाविंद ने दी है जबकि उसने नहीं दी होती तो क्या ऐसा कहने में कोई हर्ज है?" तो अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फर्माया, "वो ऐसा है जैसा कोई बनावटी कपड़े पहनने वाला हो ।” (यानी ये धोखा है, फरेबकारी है)।
(बुखारी : 5219, मुस्लिम: 5705)
05. अल्लाह का ज़िक्र करते रहना :
ऐ मुस्लिम बहन ! हर वक़्त अल्लाह का जिक्र करती रहा करो। अल्लाह के ज़िक्र से हर मुस्लिम के लिये बहुत से रुहानी, शख़्सी, नफ़्सी, जिस्मानी और इज्तिमाई फायदे हैं। किसी हालत और किसी वक्त में भी अल्लाह के जिक्र से गाफिल न रहना, अल्लाह तआला ने अपने मुख्लिस और अक्लमंद बन्दों की तारीफ़ करते हुए फर्माया, "वो अल्लाह तआला का ज़िक्र खड़े, बैठे और अपनी करवटों पर लेटे हुए करते हैं।"
(सूरह आले इमरान: 191)
हज़रत अब्दुल्लाह बिन बसर अल मुज़ाज़नी (रजि.) बयान करते हैं कि एक आदमी ने अल्लाह के रसूल से कहा कि इस्लाम के उमूर बहुत हो गये हैं तो मुझे कुछ मुख्तसर (संक्षिप्त ) चीज़ बता दें ताकि मैं उसी पर अमल करता रहूँ, तो आप (ﷺ) ने फर्माया, "तेरी ज़बान हर वक़्त अल्लाह के ज़िक्र में मश्गूल रहनी चाहिये।"
( तिर्मिज़ी : 3375, इब्रे माजा: 3793)
06. बात करने में फक्र करना:
जब भी किसी से बात करना हो तो गुरुर से बचकर बुरे अल्फाज़ और तीखे लहजे में बातचीत न करना। ये तरीका और ये आदत अल्लाह के रसूल (ﷺ) के नज़दीक नापसंदीदा है। जैसा कि रसूलुल्लाह (ﷺ) का फर्मान है, "क़यामत के दिन तुममें से सबसे नापसंदीदा मेरे नज़दीक वो होंगे जो बहुत बातूनी, बेतुकी, बनावटी और फक्रिया तकब्बुर की बातें करने वाले होंगे।"
(तिर्मिज़ी :1642)
07. ख़ामोशी इख़्तियार करना
ऐ मेरी बहन! आपकी ज़ात में अल्लाह के रसूल (ﷺ) की आदते मुबारका की झलक मिलनी चाहिये। ख़ामोशी ज़्यादा इख्तियार करना, गौर-फ़िक्र करना और कम हँसना।
हज़रत सम्माक (रह.) फरमाती हैं कि मैंने हज़रत जाबिर बिन समुरह (रजि.) से पूछा, 'क्या आपका अल्लाह के रसूल (ﷺ) की मजलिस में बैठना हुआ?' फ़र्माया, 'हाँ! आप (ﷺ) बहुत ज़्यादा ख़ामोशी इख़्तियार करते, कम हँसते, आपके अहा किराम (रजि.) कभी कोई दिलचस्प बात किया करते तो हँस लिया करते और कभी-कभार मुस्कुरा देते । '
(मुस्रद अहमद : 5/68)
अगर बात करना चाहो तो बड़े सलीके और नर्मी से, भलाई और खैरख्वाही की बात करें वर्ना ख़ामोशी बेहतर है। ये भी अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने ही सबक दिया है, फर्माया, 'जो अल्लाह और क़यामत पर यकीन रखता है उसे चाहिये कि वो खैर की बात करे या फिर खामोश रहे।"
(बुखारी : 6018)
08. किसी की बात को काट देना :
बात करने वाले की बात काटने से रुक जायें और अगर किसी को जवाब देने का मौका मिले तो बड़े रुखेपन, उसकी हतके इज्ज़त (मानहानि ) या उसका मजाक उड़ाने के अंदाज में जवाब न दें।
हर एक की बात बड़े अदब और ध्यान से सुनें और अगर जवाब देना पड़े तो बड़ी अच्छे अंदाज और नर्म लहजे में जवाब दें। खुशी और नमी के अंदाज़ में जवाब देने आपकी शख्सियत से एक अच्छे इंसान की शख्सियत का इज़हार होगा।
09. बात करने में किसी की नक़ल उतारना :
बातचीत के दौरान किसी का मज़ाक़ उड़ाने से पूरी तरह बचें। अगर कोई बेचारी औरत बात सही ढंग से नहीं कर सकती, किसी की ज़बान अटकती है या किसी की ज़बान में रवानी नहीं तो उसकी नक़ल उतारने या उसका मज़ाक़ बनाने की कोशिश नहीं करें।
अल्लाह रब्बुल इज्जत का फरमान है, 'ऐ ईमान वालों! मर्द दूसरे मर्दो का मजाक उड़ायें मुमकिन है कि वे उनसे बेहतर हों, और औरतें दूसरी औरतों का मज़ाक़ उड़ायें मुमकिन है कि वे उनसे बेहतर हों । '
(सूरह हुजुरात : 11)
रसूलुल्लाह (ﷺ) का फर्मान है, 'मुस्लिम, मुस्लिम का भाई है। वो उस पर जुल्म नहीं करता, न उसको जलील (अपमानित) करता है और न उसे हक़ीर (नीच) जानता है। किसी आदमी के बुरा होने की इतनी निशानी काफ़ी है कि वो अपने मुस्लिम भाई को हक़ीर जाने ।'
(मुस्लिम : 2564)
10. तिलावत ख़ामोशी से सुनना:
जब कुरआन करीम की तिलावत हो रही हो तो अल्लाह सुबहानहू व तआला के कलाम का अदब करते हुए हर किस्म की बातचीत से रुक जाना चाहिये जैसा कि अल्लाह रब्बुल इज्जत का फरमान है, 'और जब कुरआन पढ़ा जा रहा हो तो उसकी तरफ़ कान लगाकर सुनो और खामोश रहा करो! उम्मीद है कि तुम पर रहमत हो । '
(सूरह आराफ़: 204)
To be Continue......
Saturday, November 2, 2024
Treat your wife with Respect
Yes, Islam emphasizes treating one's spouse with kindness, respect, and honor. The Prophet Muhammad (peace be upon him) said:
"The best of you are those who are best to their wives."
(Hadith, narrated by Tirmidhi)
This teaching encourages Muslims to show compassion, patience, and care in their marital relationships. Islam promotes the idea that a wife should be treated with love, dignity, and fairness. Both husband and wife are seen as partners in the journey of life, with mutual rights and responsibilities toward each other.